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कविता

मेरी यात्रा का जरूरी सामान

लीना मल्होत्रा राव


आज मैं एक लंबी नींद से उठी हूँ
और मुझे ये दिन ही नहीं ये जिंदगी भी बिलकुल नई लग रही है
मै नहीं देखना चाहती
सोचना भी नहीं चाहती कि मैंने अपनी जिंदगी कैसे गुजारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
हर चाय के प्याले के साथ चोरी चोरी चुस्की भर पिया

और वह पुरुष जो मेरा मालिक था
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना मेरा कर्तव्य था जैसे कि मैं
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमें वह
जब चाहे अपनी इच्छाएँ और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में मैं उन्हें उसकी मर्जी के स्टेशन तक ढोती
जहाँ से उतर कर वह यूँ विदा हो जाता जैसे कोई मुसाफिर चला जाता है...

मैं रात रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुजरने वाले हवाई जहाजों को
और सोचती उनमे बैठे यात्रियों और उनकी इंतजार करती पत्नियों के बारे में

जबकि उनकी सुखद यात्रा के कई स्पर्श और चुपके से लिए हुए चुंबन
उन जहाजों से मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए मेरे बिस्तर तक आ जाते
इस तरह मेरी चादरों पर कढ़े फूलों के रंग फेड हो जाते
तब माचिस की डिबिया की सारी दियासिलाइयाँ सीलन से भर उठतीं
यही एकमात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्जी के सब फूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं

यही मेरी यात्रा का जरूरी सामान है


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